आज ही के दिन यानी 14 सितंबर 1949 को हिंदी को भारत की राज भाषा (official language) का स्थान प्रदान किया गया था। हिंदी को राज्य भाषा का स्थान दिलाने में हर राज्य के राष्ट्रवादी नेताओं का प्रयास सम्मिलित है। हिन्दी भाषी क्षेत्र से श्री पुरुषोत्तम दास टंडन की भूमिका बहुत ही अग्रगण्य थी। हिंदी को देश की राजभाषा बनाने में अधिक योगदान अहिंदी भाषी नेताओं, विचारकों, साहित्यकारों और विद्वानों का रहा है। स्वामी विवेकानंद (मातृभाषा बांग्ला), सुब्रमण्यम भारती (मातृभाषा तमिल), महात्मा गांधी (मातृभाषा गुजराती), लोकमान्य तिलक (मातृभाषा मराठी), जैसे नेता अहिंदी भाषी थे। इनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। फिर भी यह हिंदी को राष्ट्रभाषा/राजभाषा बनाने के प्रबल समर्थक थे। तमिल के महान कवि और राष्ट्रवादी विद्वान डॉ सुब्रमण्यम भारती का मानना था कि यदि सिर्फ क्रियाओं (verbs) को निकाल दिया जाए तो हिंदी संस्कृत के सबसे निकट की भाषा है। परन्तु इसके बावजूद यह बहुत ही सरल और सुगम है। देश का हर तीसरा व्यक्ति हिंदी भाषी (वस्तुत:, लगभग 44%) है। इसलिए हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा होना चाहिए।

लेकिन सच्चाई यह है कि प्रारंभ में तमिलनाडु के लोग हिंदी सीखना चाहते थे (और आज भी)। लेकिन उस समय के राजनीतिज्ञों ने अपने वोट बैंक की राजनीति के लिए हिंदी का विरोध किया । संविधान के अनुसार 1965 (संविधान लागू होने के15 वर्ष बाद) के बाद संपूर्ण भारत में भारत की राष्ट्रभाषाऔर राज्य भाषा अकेली सिर्फ हिंदी होनी थी । लेकिन तमिल नाडु के विरोध के कारण न हो सका और 1963 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कानून बनाकर हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग की मान्यता और आगे बढ़ा दी। सन 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने जब इसे लागू करने का प्रयास किया तो फिर आंदोलन तेज हुआ और 1967 (इसी दौरान लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मृत्यु हो गई और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद पर आरूढ़ हुईं) में इतना भयंकर रूप ले लिया की तमिलनाडु की कांग्रेस सरकार गिर गई और चुनाव के बाद डीएमके यानि द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम की सरकार आ गई । उसके बाद कोई भी राष्ट्रीय पार्टी उसे हटा नहीं पायी और न ही कांग्रेस भी पुनर्स्थापित हो पाई। हालांकि 1937 से 1967 तक 30 साल तक द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम सारे प्रयासों के बाद भी सरकार नहीं बना पाई लेकिन हिंदी विरोध के कारण उन्होंने अपना वोट बैंक तैयार किया और 1967 में पहली बार उनकी सरकार बनी । उन्हें अंग्रेजी पढ़ने से कोई परहेज नहीं है लेकिन हिंदी पढ़ने से परहेज है ।

अभी कुछ दिन पूर्व देश के एक प्रमुख हवाई अड्डे पर एक घटना हुई। हिंदी/संस्कृत (और ब्राह्मण) विरोध के विष फैलाकर सत्ता में आने वाली एक तमिल पार्टी की महिला नेता का एक सी आई एस एफ की महिला अधिकारी से भाषा को लेकर विवाद हो गया। शारीरिक निरीक्षण (frisking) के दौरान महिला अधिकारी ने हिंदी में निर्देश दिया। नेतृ ने अंग्रेजी में कहा: “speak in English.” इस पर महिला अधिकारी ने कहा:” Why? Are you not an Indian?” (क्यों? आप भारतीय नहीं है क्या)?
बस हो गया बवाल। मतलब अंग्रेजी सीखेंगे, हिन्दी नहीं।
इसके मूल में भारत, भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का विरोध है । हिंदी/संस्कृत को आर्यों/ब्राह्मणों की भाषा बताकर राष्ट्र की एकता को अपूरणीय क्षति पहुंचाई जा रही है। तमिलनाडु में स्वयं इसका विरोध प्रारंभ हो गया है। लोगों को हिंदी के ज्ञान की कमी से होने वाली हानियों का पता चलने लगा है। भाषा का ज्ञान एक वरदान है । हर व्यक्ति को कई भाषाएं आनी चाहिए।
हमारा देश एक बहु-भाषी राष्ट्र होने के कारण कुछ ऐसी समस्याओं का सामना कर रहा है जो संसार में संभवत: अन्य कोई देश नहीं करता। भाषा से सम्बन्धित ऐसी समस्या, न तो भौगोलिक दृष्टि से सबसे बड़े देश रूस में है न ही जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े देश चीन में। रूस और चीन दोनों की अपनी राष्ट्र भाषा है और इन देशों का सारा कार्य इनकी राष्ट्र भाषा में ही होता है। लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं है। आज तक न तो हम भारत की किसी एक भाषा को राष्ट्र-भाषा और न ही पूर्णत: राजभाषा बना पाये हैं। हम अपने विद्यालयों/विश्वविद्यालयों में अभी तक एक भी ऐसी भारतीय भाषा नहीं पढ़ाते जो संपूर्ण भारत में सर्वसंवत स्वीकार्य हो।
हिंदी लगभग 40% भारतीयों की मातृभाषा है। परंतु यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि चाहे कितनी भी मजबूत सरकार हो सब का आश्वासन यही होता है कि “हिंदी किसी पर थोपी नहीं जाएगी” । थोपने का प्रश्न कहां पैदा होता है । लोगों को उत्साहित किया जाना चाहिए कि वह कई भाषाएं सीखें। भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तित्व को बढ़ाता है और उसके हर प्रकार के ज्ञान में वृद्धि करता है । आशा है वर्तमान सरकार इस दिशा में अवश्य कुछ मजबूत कदम उठाएगी और हिंदीभाषा विरोधी भावना भड़काने वालों से समझौता नहीं करेगी।
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