सलमान खुर्शीद ने अपनी पुस्तक सनराइज़ ओवर अयोध्या लिखकर अपने जैसे तमाम सफेदपोश “जिहादियों” के “बुर्के” उतार दिए। इनके नाना (डाक्टर ज़ाकिर हुसैन) भारत के तीसरे राष्ट्रपति थे। इनके पिता खुर्शीद आलम खान केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल रहे। ये स्वयं विदेश मंत्री सहित कई बार मंत्री रहे। लेकिन न तो कृतघ्नता कम हुई, न जिहादी मानसिकता।दुनिया में कुल लगभग 300 हथियारबंद नरहंता आतंकी संगठन हैं। उनमें से 270 इस्लामिक हैं। सलमान खुर्शीद इतने मतांध हैं कि इन्हें यह तथ्य दिखाई नहीं देता। ये भारत के निहत्थे हिंदुओं की तुलना तालिबान, आईएसआईएस, और बोको हरम जैसे आधुनिक हथियारों से लैस गिरोहबंद आतंकी नरहंताओं से करते हैं।
मेरा अनुभव, अध्ययन और निष्कर्ष है कि बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर अधिकांश मुस्लिम बुद्धिजीवी जिहादी हैं। बस अंतर इतना है कि वे कलम के जिहादी हैं और उनके पास, तलवार, बंदूक/राइफल और विस्फोटक नहीं बल्कि कलम है जिहाद करने के लिए।
बहुत थोड़ी जनसंख्या को छोड़कर इनमें से अधिकतर न्याय-अन्याय, उचित अनुचित का विचार नहीं करते और “उम्माह” यानी “इस्लामी भाईचारे” की मान्यता को पोषित करते हैं । ये कलम के जिहादी तलवार और बंदूक के जिहादियों से अधिक खतरनाक है। देश के विभाजन की नींव इन्होंने ही रखी थी। दो-राष्ट्र का सिद्धांत मुख्यतः सर सैयद अहमद द्वारा प्रतिपादित किया गया था, जिसे आधुनिक भारत/पाकिस्तान के इतिहास में मुसलमानों द्वारा सबसे अधिक सम्मान दिया जाता है। वे मुस्लिम बुद्धिजीवियों में अग्रगण्य थे और उन्होंने ही भारत की “जिहादी सुपर फैक्ट्री”- यानी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना,“मोहम्मदन एंगलो-ओरिएंटल कॉलेज” के नाम से 1875 में की थी। बाद में यह 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) बना। इसके कुल तीन ऑफ-कैम्पस महाविद्यालय हैं। जहाँ-जहाँ ये परिसर हैं, वे तीनों सांप्रदायिकता के केंद्र हैं- मल्लापुरम, मुर्शिदाबाद और किशनगंज। ये केरला का वही मल्लापुरम है जहाँ 1921 में सहस्रों हिंदुओं का मोपला (मालाबारी मुस्लिमों) ने संगठित नरसंहार किया था। सर सैयद अहमद द्वारा प्रतिपादित किए गए दो राष्ट्र सिद्धांत को अली ब्रदर्स ने आगे बढ़ाया। अली ब्रदर्स यानी मोहम्मद अली गौहर (1871-1938) और शौकत अली गौहर (1878-1931)। इन दोनों को भारत की आज़ादी से कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं था।
इनकी मुख्य परेशानी यह थी कि तुर्की के खलीफा की “खलाफत” नहीं जानी चाहिए और तुर्की को दुनिया भर के मुसलमानों का धार्मिक नेता माना जाना चाहिए। जबकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद मुसलमानों और खासतौर से तुर्की की जो भूमिका रही थी, उससे अंग्रेज़ बहुत नाराज़ थे। उस समय दुनिया की सबसे बड़ी ताकत होने के कारण वे तुर्की के खलीफा के पद को समाप्त कर देना चाहते थे। शौकत अली गौहर वही है जिसके नाम पर आज़म खान ने रामपुर में “गौहर युनिवर्सिटी” नामक निजी विश्वविद्यालय बनवाया है। इस विश्वविद्यालय को बनवाने में उसने उत्तर प्रदेश सरकार के खजाने से कई सौ करोड़ रुपये हेराफेरी करके चुराए और भ्रष्टाचार किया, दूसरी पुस्तकालयों से पुस्तकें चुराई/लुटीं और आज इन्हीं सब आरोपों के चलते जेल में है। वह भी जेल में है, उसकी पत्नी भी है और उसका बेटा भी जेल में है।
अली ब्रदर्स द्विराष्ट्र सिद्धांत को आगे बढ़ाने में सबसे आगे थे, हालांकि देश विभाजन के पहले ही इनकी मृत्यु हो गई थी। लेकिन यही लोग थे जिन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को इंग्लैंड से वापस बुलाकर मुस्लिम लीग का नेतृत्व करने के लिए प्रेरित किया था और पाकिस्तान बनाने के लिए उकसाया था। राजनीतिक क्षेत्र में मोहम्मद अली जिन्ना और आध्यात्मिक तथा बौद्धिक तौर पर अल्लामा इकबाल जैसे मुस्लिम बुद्धिजीवियों की भूमिका सबको पता है। अल्लामा ने पाकिस्तान बनाने की सैद्धांतिक, मजहबी और बौद्धिक नींव रखी, जबकि जिन्ना ने उसपर महल खड़ा किया जिसे हम आज पाकिस्तान कहते हैं।
अल्लामा इक़बाल भारत और हिंदुओं से कितनी घृणा करता था, उसका अनुमान आप उसके इस शेर से लगा सकते हैं
“हो जाये अगर शाहे-खुरासां का इशारा,
सिजदा न करूँ हिंद की नापाक जमीं पर। ”
यानी अगर तुर्की का खलीफा इशारा भी कर दे तो भारत की नापाक ज़मीन पर नमाज़ भी नहीं पढूँगा| 29 दिसंबर 1930 को इलाहबाद में जब “अल्लामा इकबाल” की अध्यक्षता में मुस्लिम लीग का 25वाँ सम्मलेन हुआ तब इकबाल ने यह कहा था। आप अगर भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की जीवनी को पढ़िए तो आपको यह बात स्पष्ट समझ आ जाएगी कि बहुत थोड़े लोगों को छोड़कर सब के सब कलम के जिहादी थे। जो इस समय भी हैं, कलम के ही जिहादी हैं। धर्मनिरपेक्षता का लबादा ये सिर्फ अपने को बचाने और धर्मनिरपेक्षता की तलवार से धर्मनिरपेक्षता को खत्म करने के लिए करते हैं। इनका मुख्य उद्देश्य “दारुल इस्लाम” ही रहता है। आप जावेद अख्तर को लीजिए। अख्तर कहते हैं कि वे एक निरीश्वरवादी हैं। लेकिन उनमें कहीं से भी नास्तिकता झलकती है क्या? कभी आपने सुना कि उन्होंने देश के हित में कोई बयान दिया हो? हमेशा, चाहे वह आतंकवादी ही हो, वे मुसलमानों के पक्ष में ही बोलते हैं। यह व्यक्ति दावा करता है कि वह अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी है जबकि उसने भारत के भीतर मुसलमानों के पक्ष में हमेशा बोला है लेकिन भारत के बाहर जो हिंदुओं और ईसाइयों के विरुद्ध हो रहा है उस पर उसने कभी मुँह नहीं खोला।
अगर वह सच्चा धर्मनिरपेक्ष होता तो वह जो कुछ भी अफगानिस्तान, ईराक, सीरिया इत्यादि में हो रहा है, उसकी भर्त्सना करता। लेकिन वह इन घटनाओं की कभी इनकी निंदा नहीं करता क्योंकि यह आतंकवाद तालिबान, आईएसआईएस द्वारा किया जा रहा है।अगर मुसलमान मुसलमान के ऊपर अत्याचार करें तो अत्याचार नहीं होता। अगर मुसलमान हिंदू के ऊपर अत्याचार करे तो अत्याचार नहीं होता। लेकिन सिर्फ अगर हिंदू कभी मुसलमान के विरुद्ध कुछ बोल या कर दे तो तुरंत अत्याचार हो जाता है। भारत के अधिकांश मुस्लिम बुद्धिजीवी पूरी तरह से पाखंडी, झूठे, सांप्रदायिक, और अंदर से गज़वा-ए-हिंद और दारुल-इस्लाम के समर्थक हैं। इनका गुप्त एजेंडा है भारत को एक इस्लामी राष्ट्र बनाना। हामिद अंसारी को देश ने राष्ट्र के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद यानी उपराष्ट्रपति के पद पर बिठाया। लेकिन जब तक यह व्यक्ति उस पद पर बैठा रहा, तब तक यह मुसलमानों की हिमायत करता रहा और हटने के बाद उसने कहा भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं हैं और यह देश रहने लायक नहीं है। यह व्यक्ति कितना कृतघ्न हो सकता है? कुछ समय पूर्व पता चला है कि रॉ के कई अधिकारियों ने इसके विरुद्ध सरकार को लिखित शिकायत की थी/है कि देश के विरुद्ध, ईरान में भारत के राजदूत के रूप में कार्य करते समय, इसने देश की गुप्त जानकारी अनधिकृत लोगों से साझा की।
वे कहते हैं कि अपनी योग्यता के कारण वहाँ पहुँचे हैं। पर प्रश्न यह है कि तुम्हारी योग्यता क्या होती है अगर तुम्हें इस देश में पढ़ने-लिखने और आगे बढ़ने का अवसर नहीं होता, समान अधिकार नहीं दिया होता (जैसा पाकिस्तान और अन्य इस्लामिक देशों में होता है) तो तुम क्या कर रहे होते? आपने कभी देखा या सुना क्या कि भारत के मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने कभी कोई पत्र संयुक्त राष्ट्र को लिखा कि जो पाकिस्तान में गैर-मुसलमानों के ऊपर इतना अत्याचार हो रहा है, वह बंद होना चाहिए। या कि पाकिस्तान के ऊपर दबाव डाला जाए? क्या इन्होंने कभी पत्र लिखा कि बांग्लादेश में जो हिंदुओं के साथ अत्याचार हो रहा है, वह बंद होना चाहिए क्योंकि जिस देश (भारत) में हम रह रहे हैं, वहाँ हमारे साथ कोई भेदभाव नहीं होता। संविधान में इन्हें बराबर का अधिकार ही नहीं विशेषाधिकार प्राप्त है। अगर किसी एक भी बुद्धिजीवी ने लिखा है तो वह अवश्य दिखाएँ और नहीं तो यह मान लें कि वे बुद्धिजीवी नहीं हैं, वे भी एक जिहादी हंሀ और वे कलम के जिहादी हैं। इससे उन सरकारों का रुख बदलता या नहीं पर दबाव तो होता।
क्या इन्होंने आइएसआईएस या जैश-ए-मोहम्मद को या एलईटी को या जो लगभग 300 आतंकवादी संगठन है उनमें से किसी की निंदा की? क्या इन्होंने अखबारों में कहीं पर कोई भी लेख लिखा कि आईएसआईएस या लश्कर-ए-तैयबा जैश-ए-मोहम्मद जो कुछ कर रहा है वह बहुत गलत है? इनकी हिम्मत नहीं है कि आईएसआईएस लश्कर-ए-तैयबा जैश-ए-मोहम्मद, बोको हरम इत्यादि आतंकवादी संगठन के विरुद्ध बोलें। इनकी सारी की सारी बुद्धिजीविता बस भारत में दंगाइयों और आतंकवादियों को बचाने की है। सच्चाई यह है कि यह “कलम के जिहादी” उन आतंकवादियों से अधिक खतरनाक हैं जिनके हाथ में बंदूक है, आरडीएक्स है, राइफल हैं, बम-गोले हैं। देश को इनसे सबसे अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है। भारत विभाजन के यही कारण थे और वही तैयारी फिर कर रहे हैं।