You are currently viewing “स्वदेश” में प्रकाशित “विजय दिवस”  की स्वर्ण जयंती पर मेरा लेख

“स्वदेश” में प्रकाशित “विजय दिवस” की स्वर्ण जयंती पर मेरा लेख

16 दिसम्बर भारतीय इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण है और सदैव स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जायेगा। आज ही के दिन 50 वर्ष पूर्व भारतीय सशस्त्र सेनाओं के समक्ष पाकिस्तान की लगभग एक तिहाई सेना (93,000 सैनिकों) ने ढाका में आत्मसमर्पण किया था। भारत ने पाकिस्तान के लगभग 20% भूभाग और 40 जनसंख्या को उससे अलग कर स्वतंत्र राष्ट्र की स्थापना की थी। दुनिया में महा शक्तियों के समक्ष भी ऐसे बहुत कम अवसर आए हैं जब इतनी बड़ी सेना ने समर्पण किया हो और तत्काल इतने बड़े देश का उदय हुआ हो।

लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि लगभग 800 वर्षों (1191-92, मुहम्मद गो़री) बाद “दिल्ली” के किसी “हिंदू शासक” के नेतृत्व में एक घोषित इस्लामिक राष्ट्र और “अनन्य रूप से मुसलमानों की सेना” को अंतिम रूप से पराजित किया हो। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “इंडिया आफ्टर गांधी” में ख्याति प्राप्त इतिहास कार रामचंद्र गुहा लिखते हैं “1971 की पाकिस्तान पर भारत की विजय बहुत ही महत्वपूर्ण थी, क्योंकि लगभग 800 वर्षों के बाद दिल्ली में आरूढ़ किसी हिंदू शासक के नेतृत्व में किसी मुस्लिम शासक को, जिस की सेना अनन्य रूप से मुसलमानों से संगठित थी, को परास्त किया था।

ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत के कई राजाओं ने मुगल और मुस्लिम सेनाओं को हराया था मगर उनकी राजधानी दिल्ली नहीं थी। राजा सुहेलदेव से लेकर मराठा शासकों तक हार-जीत चलती रही थी लेकिन दिल्ली के किसी शासक ने अनन्य रूप से बनी मुस्लिम सेना को इतनी बुरी तरह से 800 साल के पहले कभी परास्त नहीं किया था और संभवत उससे पहले भी।

अब थोड़ा उन वीरों के बारे में जान लेते हैं जिनके कारण यह सब संभव हुआ। इसके लिए भारत की सशस्त्र सेनाएं: जल सेना, थल सेना और वायुसेना के हम ऋणी हैं। परन्तु इनमें तीन नाम प्रमुखता से उभर कर आते हैं: सबसे पहला तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी का जिन्होंने यह कठोर और निर्भीक निर्णय लिया कि हमें इस युद्ध में जाना है और बांग्लादेश को आजाद कराना है। जनरल (तब फील्ड मार्शल नहीं बने थे। फील्ड मार्शल का सम्मान युद्ध के बाद प्रदान किया गया था) मानेकशॉ ने प्रधानमंत्री से स्पष्ट पूछा था कि युद्ध में जाने के पहले मुझे यह आप साफ-साफ बता दीजिए कि हमारा उद्देश्य क्या है? What is our goal in this war? और इंदिरा गांधी ने कहा था “बांग्लादेश” यानी पूर्वी पाकिस्तान की संपूर्ण आजादी और एक संप्रभु राष्ट्र (sovereign nation) का निर्माण। जब शिखर नेतृत्व की सोच में स्पष्टता हो तो सैन्य बलों को अपना लक्ष्य पाना सुगम हो जाता है।

इस युद्ध के दूसरे महानायक थे फील्ड मार्शल मानेकशॉ। इनके दबंग व्यक्तित्व और अद्भुत रणनीतिक कौशल की इंदिरा गांधी भी कायल थीं। दोनों एक दूसरे के अनन्य प्रशंसक भी थे। कहां जाता है 1971 की विजय के बाद, फील्ड मार्शल मानेकशॉ की प्रसिद्धि से भ्रमित हो समाचार पत्रों ने यह प्रचारित कर दिया था फील्ड मार्शल मानेकशॉ तख्ता पलट की योजना बना रहे हैं। इससे उद्वेलित इंदिरा गांधी ने फील्ड मार्शल मानेकशॉ को बुलाया और सीधा सवाल किया- “ऐसी खबरें आ रही है कि आप मेरी सरकार को पलटना चाहते हैं?”

फील्ड मार्शल का सपाट प्रत्युत्तर- “मैडम वी बोथ हैव लोंग नोज। यू डोंट पोक इन माई अफेयर्स, आई विल नॉट पोक इन युवर्स (मैडम, हम दोनों की नाक लंबी है। आप मेरे मामलों में अपनी नाक ना डालिए तो मैं आपके मामले में अपनी नाक नहीं डालूंगा)” लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जो सम्मान फील्ड मार्शल मानेकशॉ को मिलना चाहिए वह कांग्रेस सरकार देने में विफल रही। वस्तुतः यह महान युद्ध जीतने के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने सैनिकों की पेंशन 75% से घटाकर 50% कर दी थी।

युद्ध के तीसरे नायक लेफ्टिनेंट जनरल जे एस अरोड़ा थे जिन्हें इन्दिरा गांधी ने गवर्नरशिप देने से स्पष्ट मना कर दिया। जनमानस के दबाव में कांग्रेस सरकार ने उन्हें “पद्म भूषण” से सम्मानित किया मगर किसी राज्य का गवर्नर बनाना उचित नहीं समझा जबकि कितने अयोग्य “आया राम गया राम” गवर्नर बने घूम रहे थे। हालांकि बाद में अकाली दल ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता देकर सम्मानित किया।

अब थोड़ी बात अपने दुश्मनों की भी कर लें। पाकिस्तान की पूर्वी कमान के कमांडर इन चीफ जनरल अमीर अब्दुल्लाह खान नियाजी (एएके नियाज़ी) के आत्मसमर्पण करते समय की तस्वीर जो कुछ कहती है वह लाखों शब्द नहीं कर सकते। यह एकमात्र तस्वीर ही लाखों पाकिस्तानियों के मुंह पर तत्काल ताला लगा देती है। ऊपर से चाहे वह कुछ भी कहते रहे अंदर से शर्म और आत्मग्लानि से उनका सिर झुक जाता है। दिसम्बर 1971 से अप्रैल 1975 तक लगभग 3 साल 3 महीने जनरल नियाजी को भारत का प्रिजनर ऑफ वार (POW) यानी कि युद्ध बंदी बन कर रहना पड़ा। नियाज़ी की हैसियत पाकिस्तान में बहुत ऊंची थी लेकिन इस युद्ध के बाद उन्हें न सिर्फ दुत्कारा गया बल्कि लेफ्टिनेंट जनरल से उनका डिमोशन (अवनति) करके मेजर जनरल बना दिया गया।

एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह भी है कि लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोरा और जनरल नियाजी दोनों (अब पाकिस्तान के) पंजाब प्रांत के ही थे। जहां जनरल जगजीत सिंह अरोरा झेलम जिले में पैदा हुए थे वहीं नियाजी उसके बगल में मियांवाली में पैदा हुए थे। दोनों पंजाबी जाति (ethnicity) के ही थे। जनरल जगजीत सिंह अरोरा 1939 भारतीय सेना अकादमी (Indian Military Academy) से सीधे सेना अधिकारी बने थे जबकि जनरल नियाजी 1942 एक कैडेट से आफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी बेंगलौर से। दोनों की उम्र में 1 साल का अंतर था जनरल नियाजी जनरल अरोरा से 1 वर्ष बड़े थे लेकिन सेवा में 3 वर्ष पीछे थे। दोनों की मृत्यु भी 1 साल के अंतर में ही 2004-5 में हुई। 1942 से लेकर 1947 तक मेजर अरोरा और कैप्टन नियाजी एक ही सेना (ब्रिटिश इंडियन आर्मी) में साथ-साथ रहे।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नियाज़ी की मूल रेजीमेंट ⅘ राजपूत रेजीमेंट थी, जबकि जनरल अरोरा पंजाब रेजीमेंट के थे। यह दोनों ही रेजीमेंट आज भी भारत में हैं।

आइए उन सभी वीर सपूतों के समक्ष नतमस्तक हो अपनी कृतज्ञता प्रकट करें और इस तरह की “स्वर्णिम विजय” प्राप्त करने को एक आदत बना लें।

Saras Tripathi

Saras Tripathi is a multifaceted personality having expertise in multiple domains of human endeavors. Excellence has been the hallmark of his accomplishments. He served in the Indian Army for eight years as Commissioned Officer (last rank as Major), A Deputy Secretary (Media) to the Government of India, Human Resource Manager in Central PSU and Manager (Security and Vigilance)/ Airport Manager at IGI airport New Delhi. He last served as Commandant of Raxa Academy of GMR Group (a certified “centre of excellence”) until he decided to quit the position (and all jobs forever) and dedicate himself to motivate youth/professionals and fellow brethren to achieve what they dream of. He left the highly paid job and prestigious position to pursue his passion for freelance-writing and publishing books of national importance. As a motivational speaker he has been training people to achieve their cherished goal in life. Education: He graduated from the University of Allahabad in English Literature, Philosophy and Ancient history/Culture followed by MA (Philosophy) in the year 1989. He has Bachelor and Masters’ degrees in Journalism (B. Journ. and M. Journ) from Sagar University, and PG Diploma in HRD from Pondicherry University. He has been a graded artist at All India Radio. Trainer and Speaker: He has delivered hundreds of lectures/PPT on a variety of subjects relating to self-growth, personality development and topics of national importance. Author: He has authored two books; one each in English (“Holy Sinners: Search of Kashmir”) and Hindi (“Kashmir Mein Atankwaad: AnkhonDekhaSach”) and several articles published in various newspapers/journals. Occasionally, he has been at AIR for discussions and talks.He regularly writes on contemporary subjects for various newspapers/magazines and Social Media platforms. Pragya Matth Publications is a publication house established by authors to protect the author community from unscrupulous, unethical and exploitative commercial publishers. Pragya Matth has been established by an ex-army officer, Major Saras Tripathi After his own bitter experience as an author, with publishers and their unethical business dealings. The publication is managed by a group of authors, academicians and professionals.