भारत के संविधान के साथ जो सबसे बड़ा धोखा किया गया है, उनमें से एक अल्पसंख्यक की परिभाषा को लेकर है। भारतीय संविधान में कहीं भी अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। परिणाम स्वरूप इस शब्द का बहुत ही अनर्थपूर्ण तात्पर्य निकालकर भारतीय संविधान की आत्मा के साथ गंभीर छेड़छाड़ की गई है।
इसके अतिरिक्त इसमें छेड़छाड़ के कारण हिंदू, कई मामलों में, दूसरे दर्जे के नागरिक होने के लिए अभिशप्त हैं। बहुत से ऐसे विषय हैं जहाँ हिंदुओं के अधिकारों का स्पष्ट हनन किया गया है।
आज देश में नौ ऐसे राज्य (केंद्र शासित प्रदेश भी सम्मिलित) हैं जहाँ पर हिंदू अल्पसंख्यक हैं, लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक का कोई भी विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है। इन राज्यों में भी अल्पसंख्यकों का विशेषाधिकार उन लोगों को दिया गया है जिनकी जनसंख्या 50 प्रतिशत से लेकर 98 प्रतिशत तक है।
जैसे नगालैंड और मिज़ोरम में क्रमशः हिंदू मात्र 8.7 प्रतिशत और 2.7 प्रतिशत हैं और ईसाई 88 प्रतिशत लेकिन हिंदुओं को छोड़कर अल्पसंख्यक का विशेषाधिकार अन्य सभी धार्मिक संवर्गों को है।
ईसाइयों को भी अल्पसंख्यक विशेषाधिकार है जो वहाँ 88 प्रतिशत हैं और सारा तंत्र उन्हीं के नियंत्रण में है। यही स्थिति छह राज्यों और तीन केंद्र शासित प्रदेशों में है। संपूर्ण समस्या की जड़ यह है कि संविधान में कहीं भी यह स्पष्ट रूप से नहीं लिखा गया है कि “अल्पसंख्यक” किसे माना जाएगा।
इस बात को इस तरह समझ सकते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में लगभग 20 करोड़ (15 प्रतिशत) से अधिक होकर भी मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। मुसलमानों की जनसंख्या भारत में इंडोनेशिया के बाद सबसे अधिक है।
संसार में ऐसे 57 देश हैं जहाँ मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और अधिकतर इन देशों में इस्लाम राज्य-धर्म है। यानी इस्लाम को राजकीय संरक्षण प्राप्त है। तो क्या इस्लाम को भारत में एक “अल्पसंख्यक” का विशेषाधिकार दिया जाना चाहिए?
इस पर अलग-अलग लोग अलग-अलग विचार रख सकते हैं। परंतु सच्चाई यह है कि संविधान में जब अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार देने की बात की गई थी तो उसके पीछे जो मूल भावना थी, वह यह थी कि कहीं ऐसा ना हो कि भाषाई, धार्मिक या जातीय अल्पसंख्यक उपेक्षा के कारण या विशेष संरक्षण नहीं दिये जाने के कारण नष्ट हो जाएँ।
जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों में पारसी सारी दुनिया में मात्र 1.5 लाख के लगभग ही बचे हैं। उसमें से लगभग आधे हमारे ही देश में (लगभग 70,000) हैं। देश में यहूदियों की संख्या बहुत सीमित है। जातीय अल्पसंख्यकों में जरावा और अंडमानी जातियाँ बहुत सीमित संख्या में है।
भारत भूमि से कोई भी धर्म आज तक समाप्त नहीं हुआ। भारत में सभी धर्मों को संरक्षण प्रदान किया गया है। यही कारण है कि पिछले 1,300 वर्षों से पारसी इस देश में छोटी संख्या में रहकर भी पूरी तरह से सुरक्षित हैं।
लगभग 191 ऐसी भाषाएँ हैं जो विलुप्ति की कगार पर हैं क्योंकि उन्हें बोलने वालों की संख्या बहुत ही कम है। इन पर सरकारों का कोई ध्यान नहीं है। इस विषय पर संविधान की आत्मा यह थी कि ऐसी जातियों (एथनिक समूहों), ऐसी भाषाओं और ऐसे पंथों को संरक्षण दिया जाए जिन्हें इस धरती से नष्ट होने का संकट हो।
लेकिन दुर्भाग्य से इसका तात्पर्य अलग तरीके से निकाल लिया गया और आज ईसाइयत और इस्लाम के अनुयायी भारत में अल्पसंख्यक गिने जाते हैं, जिनके क्रमश: 133 और 57 देश हैं और जिनकी संख्या भारत देश में भी इतनी अधिक है कि उनके नष्ट होने का कोई कारण नहीं है।
ऐसे में एक बहुत बड़ा प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या हमें अल्पसंख्यक या “माइनॉरिटी” शब्द को परिभाषित नहीं करना चाहिए क्योंकि वर्तमान वस्तुस्थिति के अनुसार ईसाई और मुसलमान (या कोई भी अल्पसंख्यक) तब तक अल्पसंख्यक रहेंगे जब तक इनकी जनसंख्या इस देश में 51 प्रतिशत नहीं हो जाती।
और तब तक इन्हें ये विशेषाधिकार मिलते रहेंगे। क्या अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार देने के पीछे यही विचार था? निश्चित रूप से नहीं। इसलिए यह आवश्यक है कि हम अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित करें।
संवैधानिक स्थिति
भारत के संविधान में अनुच्छेद 25 से 30 तक अल्पसंख्यकों के विषय में विस्तृत विवरण मिलता है। इसमें भी अनुच्छेद 29 और 30 विभिन्न वर्ग के अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार प्रदान करते हैं।
यही अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को अपने शैक्षिक संस्थान और धार्मिक दान ग्रहण करने, इत्यादि को स्वतंत्र/स्वायत्त रूप से चलाने का अधिकार देता है। जबकि यह अधिकार हिंदुओं को नहीं है।
मस्जिद और चर्च में जो भी पैसा आता है, उसपर मात्र उनके धार्मिक संगठनों का अधिकार होता है, जबकि हिंदू मंदिरों पर जो भी चढ़ावा आता है, उसपर सरकार का अधिकार होता है। यह अत्यंत ही भेदभाव पूर्ण कानून है।
इसके अतिरिक्त अल्पसंख्यकता का दुरुपयोग करके संसार के दो बड़े धार्मिक समुदायों के संगठन भारत में धर्म परिवर्तन का कार्य कर रहे हैं। सबसे आश्चर्य की बात है कि दुनिया के सबसे अधिक सताए गए पंथ यहूदियों को इस अल्पसंख्यक की सूची में सम्मिलित नहीं किया गया है।
पृष्ठभूमि और भेदभाव
देश में ऐसे छह राज्य और तीन केंद्र शासित प्रदेश हैं जहाँ पर हिंदू अल्पसंख्यक हैं। इन राज्यों में हिंदुओं की जनसंख्या है- नागालैंड में 8 प्रतिशत, मिज़ोरम में 2.7 प्रतिशत, मेघालय में 11.5 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश में 29 प्रतिशत, मणिपुर में 41.4 प्रतिशत और पंजाब में 39 प्रतिशत।
केंद्र शासित प्रदेशों में जम्मू-कश्मीर में 32 प्रतिशत (जबकि कश्मीर घाटी में मात्र 2 प्रतिशत बचे हैं। जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश के 98 प्रतिशत हिंदू कश्मीर घाटी के बाहर रहते हैं)। लक्षद्वीप में 3 प्रतिशत लदाख में मात्र 2 प्रतिशत जनसंख्या हिंदू है।
लेकिन दुर्भाग्य से इन राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक को मिलने वाली कोई भी सुविधाएँ प्राप्त नहीं होती क्योंकि इन्हें अल्पसंख्यक की श्रेणी ही प्राप्त नहीं है। बहुत बड़ी विडंबना यह है कि अल्पसंख्यक को सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना गया है, ना कि प्रादेशिक स्तर पर।
परिणाम स्वरूप इन नौ प्रदेशों में हिंदुओं की दशा अत्यंत ही दयनीय है। जहाँ चर्च और मस्जिद बनाने और चलाने की स्वायत्तता प्राप्त है, हिंदू मंदिरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। यहाँ हिंदू धर्म दिन-प्रतिदिन समाप्त होता जा रहा है और हिंदू धर्म के अनुयायी भी क्योंकि परिस्थितियाँ हिंदुओं के बिल्कुल प्रतिकूल हैं।
मतलब जिस भावना को ध्यान में रखकर ये प्रावधान किए गए थे, उसका दुष्परिणाम हिंदुओं को भुगतना पड़ रहा है। इस विषय को लेकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता अश्वनी उपाध्याय ने एक जनहित याचिका दायर की थी जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पादित करने की बजाय अल्पसंख्यक आयोग को सौंप दिया।
बहुत बड़ी विडंबना यह है कि अल्पसंख्यक आयोग में कोई भी हिंदू नहीं है। यानी हिंदू “माइनॉरिटी” होंगे या नहीं इसका निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ गैर-हिंदुओं को है। संवैधानिक दुर्व्यवस्था के कारण हिंदू धर्म के अंतर्गत ही कई ऐसे समुदाय हैं जो स्वयं को अहिंदू और अल्पसंख्यक घोषित करने की प्रार्थना कर रहे हैं।
वे चाहते हैं कि उन्हें भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया जाए। उसका कारण यही है कि अल्पसंख्यकों को जो विशेषाधिकार मिले हुए हैं, वे भी वे अधिकार चाहते हैं। अभी सबसे हाल का उदाहरण कर्नाटक के लिंगायत समुदाय का है।
अल्पसंख्यकों और अल्पसंख्यक संस्थानों को मिलने वाले विशेष अधिकारों को देखकर, उन्होंने भी अपने को अल्पसंख्यक घोषित किए जाने की मुहिम चलाई। सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने तो उन्हें अल्पसंख्यक घोषित भी कर दिया।
लेकिन नियमानुसार जब तक केंद्रीय सरकार और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग इसकी पुष्टि नहीं करता तब तक उन्हें अल्पसंख्यक का स्थान प्राप्त नहीं होगा। अन्यथा हिंदू समाज से एक समुदाय और निकलकर अल्पसंख्यक हो गया होता जैसा सिख, जैन और बौद्ध धर्म के साथ हुआ है।
यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। उत्तर भारत में कायस्थ समुदाय के लोगों ने भी इसी तरह की प्रार्थना पूर्व में की थी कि उन्हें भी अल्पसंख्यक घोषित कर दिया जाए ताकि वह अपने शैक्षणिक संस्थान चला सकें।
संविधान के अनुच्छेद 29-30 जिस तरह विशेषाधिकार दे रहे हैं, उसके कारण देश के लिए भी विघटन की परिस्थितियाँ पैदा हो रही हैं जो सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के लिए बहुत ही प्रतिकूल है।
अल्पसंख्यक घोषित किए जाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि अल्पसंख्यक घोषित होने के बाद उस समुदाय को अपने स्वायत्त शैक्षणिक संस्थान चलाने के अधिकार मिल जाते हैं जिसमें उनके समुदाय के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो जाती हैं।
देश की शिक्षा में ईसाई संस्थानों की अग्रणी भूमिका इसी कारण है। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेज में, जहाँ हिंदुओं को 98 प्रतिशत अंक पाकर भी प्रवेश नहीं मिलता, वहाँ ईसाइयों को 65-70 प्रतिशत पर भी प्रवेश मिल जाता है क्योंकि उनकी जनसंख्या देश में लगभग 2 प्रतिशत है परंतु इन संस्थाओं में उनके लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं।
धर्मपरिवर्तन का यह भी एक बड़ा कारण है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस समुदाय की जनसंख्या 80 प्रतिशत है उसे इन नियमों के कारण अपने संस्थान बनाने का अधिकार नहीं है। तरह-तरह के जातीय और धार्मिक आरक्षण के कारण उनको शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं।
परिवर्तन कैसे हो सकता है?
संविधान संशोधन एक भारी-भरकम प्रक्रिया है। यदि भारत सरकार संविधान को बदलना चाहेगी और अनुच्छेद 25 से लेकर 30, जिसमें अल्पसंख्यकों को ये विशेषाधिकार दिए गए हैं, में परिवर्तन करेगी तो भारत में और सारी दुनिया में एक गलत संदेश जाएगा। यह हमारा उद्देश्य भी नहीं है।
हमारा उद्देश्य किसी के अधिकारों को कम करना नहीं, बल्कि सभी को बराबर अधिकार देना है। अल्पसंख्यकवाद और अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार दिए जाने के कारण हिंदुओं की स्थिति संविधान में और देश में दूसरे श्रेणी के नागरिकों की हो गई है। इस असमानता को दूर करने के लिए आवश्यक है कि इस स्थिति को बदला जाए।
बदलने के लिए संविधान संशोधन की प्रक्रिया कठिन हो सकती है। इसलिए इसका सरल तरीका यह है कि सरकार एक कानून बनाकर “अल्पसंख्यक” शब्द को परिभाषित करे। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अल्पसंख्यक उन्हीं लोगों को मानने की ओर संकेत दिया है जिनकी जनसंख्या 1 या 2 प्रतिशत से कम हो।
सरकार राष्ट्रीय सहमति के बाद कानून बनाकर सिर्फ उन लोगों को अल्पसंख्यक माने जिनकी जनसंख्या देश में कुल आबादी का 1 प्रतिशत या उससे कम है। इसका दूसरा तरीका यह हो सकता है की प्रतिशत की बजाय उनकी कुल जनसंख्या को भी आधार माना जा सकता है।
जिस धार्मिक समुदाय, जातीय समुदाय या भाषाई समुदाय की कुल जनसंख्या एक करोड़ से कम हो उसे अल्पसंख्यक घोषित किया जाए। इस तरह से अल्पसंख्यक को परिभाषित करने के दो तरीके हो सकते हैं।
इनमें से विस्तृत विचार विमर्श के बाद किसी एक मानक को स्वीकार किया जा सकता है। ऐसा करने से सिर्फ वे लोग ही अल्पसंख्यक की श्रेणी में बचे रहेंगे जो वास्तविक रूप में अल्पसंख्यक हैं। ईसाई और मुसलमान किसी भी रूप में अल्पसंख्यक नहीं हैं। यूँ तो बौद्ध, जैन और सिख को भी इस वर्ग से बाहर किया जाना चाहिए।
सही अर्थों में जो अल्पसंख्यक हैं, जैसे पारसी और यहूदी सिर्फ उन्हें ही यह संरक्षण मिलना चाहिए। इसी तरह से भाषाई अल्पसंख्यकों की पहचान की जाए और जो लोग भाषाई दृष्टि से एक करोड़ से कम जनसंख्या वाले हैं सिर्फ उन्हें ही यह अधिकार दिया जाए। इसी तरह से जातीय अल्पसंख्यक भी पहचाने जा सकेंगे।
वर्तमान स्थिति यह है कि भाषाई और जातीय अल्पसंख्यकों की ओर कोई ध्यान ही नहीं है, सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों, वह भी जो सही अर्थों में अल्पसंख्यक नहीं हैं, उन्हें ही सारे विशेषाधिकार दे दिए गए हैं।
इन विशेष अधिकारों का दुरुपयोग करके मदरसे राष्ट्र-विरोधी शक्तियों को प्रश्रय देते हैं और चर्च धर्म परिवर्तन के केंद्र बन गए हैं। पूरा का पूरा पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत का बनवासी क्षेत्र इनकी गिरफ्त में है।
नक्सलवाद और आतंकवाद को बढ़ावा देने में काफी बड़ा हाथ धर्म परिवर्तन कराने वाली संस्थाओं का भी है। यही कारण है कि नक्सलवाद और आतंकवाद उन्हीं क्षेत्रों में अधिक है जहाँ पर इनकी गतिविधियाँ अधिक हैं, चाहे वह जम्मू-कश्मीर हो, पूर्वोत्तर राज्य हों या छत्तीसगढ़ का सुकमा, गढ़चिरौली इत्यादि का क्षेत्र हो।
भारत की सनातन संस्कृति दुनिया की प्राचीनतम संस्कृति और भारत प्राचीनतम सभ्यता है। जब संसार में लोगों को लिखना-पढ़ना तक नहीं आता था और नंगे घूमते थे, हमने महान दार्शनिक ग्रंथ, गणित, विज्ञान, ज्योतिष, संगीत, साहित्य और कला के विभिन्न क्षेत्रों में अतुलनीय प्रगति की थी।
सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों ने “वसुधैव कुटुंबकम” यानी “संपूर्ण वसुधा एक परिवार है” का सर्वश्रेष्ठ विचार दिया था। इतिहास साक्षी है दुनिया में जितने भी सताए हुए लोग हैं उन्हें भारत में शरण मिली है।
ज़ोराष्ट्रियन धर्म यानी “पारसी” धर्म सारे संसार से और अपने मूल देश ईरान से भी खत्म हो चुका है, लेकिन भारत में जीवित है। जब सारी दुनिया यहूदियों के नरसंहार में जुड़ी जुटी हुई थी, भारत ने उन्हें संरक्षण प्रदान किया।
इज़राइल बनने पर यहूदियों ने अपने इतिहास में इसे रेखांकित भी किया। उन्होंने भारत की प्रशंसा में लिखा, “सारे संसार में हमें सताया गया। भारत अकेला देश है जहाँ हमें संरक्षण प्राप्त हुआ और समान अधिकार दिए गए।”
धर्मनिरपेक्षता- धर्मपरिवर्तन का एक मुखौटा
हमारे देश में “धर्मनिरपेक्षता” जैसे पाखंड के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि भारत की आत्मा में धर्मनिरपेक्षता रची-बसी है। वोट की राजनीति के लिए इस शब्द को भारत के संविधान की प्रस्तावना में, आपातकाल के दौरान 1976 में बलपूर्वक और असंवैधानिक तरीके से घुसेड़ दिया गया था।
इसी की आड़ लेकर के तरह-तरह के कानून बनाए गए। 1992 में अल्पसंख्यक आयोग का गठन कर दिया गया जो इस अल्पसंख्यकवाद को बढ़ावा देने का एक केंद्र बिंदु बन गया है। अतः हमारा अनुरोध है कि राष्ट्रहित में यथाशीघ्र कानून बनाकर के अल्पसंख्यक को परिभाषित करें और राष्ट्र को अल्पसंख्यकवाद के विनाश से बचाएँ।
मेजर सरस त्रिपाठी भारतीय सेना में अपनी सेवा देने के बाद सरकारी और सार्वजनिक व निजी क्षेत्र में भी सेवाएँ दे चुके हैं। उपरोक्त विचार लेख के व्यक्तिगत हैं।