“भ्रष्टाचार की टावर धराशाई”

भारत में अब तक के सबसे ऊंचे बहुमंजिला भवन, नोएडा के सेक्टर-93 ए में स्थित सुपरटेक ट्विन टावर्स (Supertech Twin Towers), को 28 अगस्त को अपराह्न लगभग 2:30 बजे ढहा दिया गया। इस विशालकाय इमारत को गिराने के लिए लगभग 3,700 किलो विस्फोटक लगाया गया। योजनानुसार ट्विन टावर गिराए जाने से पहले उसके पास की सुपर टेक एमरल्‍ड और एटीएस विलेज सोसाइटी के निवासियों को सुरक्षित जगह ले जाया गया ताकि कोई दुर्घटना न हो। सुपर टेक एमराल्‍ड के दो रिहायशी टावर ऐसे हैं जिनकी ट्विन टावर से दूरी 10 मीटर से कम है। अन्ततः "भ्रष्टाचार की टावर्स" को क्षितिज से सदा के लिए ज़मींदोज़ कर दिया गया, लेकिन क्या भ्रष्टाचार का तन्त्र भी ज़मींदोज़ हुआ? उत्तर है "नहीं"। भ्रष्टाचार की प्रतीक इन "ट्विन टावर्स" की कहानी 23 नवंबर, 2004 से शुरू हुई जब नोएडा प्रशासन ने सेक्टर-93 ए के प्लॉट नंबर 4 को एमराल्ड कोर्ट के लिए आवंटित किया था। इसमें ग्राउंड फ्लोर सहित 9 मंजिल के 14 टावर बनाने की मंजूरी थी। सुपरटेक कंपनी को टावर बनाने के लिए 13.5 एकड़ जमीन आवंटित की गई थी। इसमें 12 एकड़ हिस्से यानी 90 फीसदी क्षेत्र पर 2009 तक निर्माण का काम पूरा हो गया था। बाकी के 10 फीसदी हिस्से को ग्रीन जोन के लिए रखा गया। लेकिन भ्रष्ट बिल्डर, भ्रष्ट ब्यूरोक्रेसी और भ्रष्ट राजनेताओं की तिकड़ी ने असम्भव कर दिखाया। बची हुई 1.5 एकड़ भूमि पर, जो ग्रीन बेल्ट के लिए निर्धारित थी, 2011 में दो नए टावर बनाए जाने की खबरें आईं और देखते ही देखते काम शुरू हो गया। अब आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि 12 एकड़ में 900 परिवार रह रहे थे और इतने ही परिवार 1.5 एकड़ में बसाने की तैयारी हो रही थी। अन्य विषयों पर विचार के पहले यह समझ ले कि यह वाद-विवाद क्या है। नवंबर 2004 में नोएडा अथॉरिटी ने सुपरटेक बिल्डर्स को 14 टावर और एक शॉपिंग कांप्लेक्स बनाने के लिए अनुमति दी यह टावर 10 मंजिली तथा 37 मीटर ऊंची होनी थी। बाद में शॉपिंग कांप्लेक्स (जो असल में ग्रीन बेल्ट थी) की जगह दो और टावर बनाने की अनुमति दे दी गई। इसी प्लान को संशोधित करके 2009 में 10 की जगह 25 मंजिल बनाने की अनुमति दे दी गई तथा टावरों की संख्या बढ़कर 14 से 17 कर दी गई। एक वर्ष बाद ही वर्ष 2010 में इस "प्लान" को भी संशोधित कर दिया गया और ट्विन टावर्स को 41 मंजिली बनाने की अनुमति दे दी गई। जो बिल्डिंग मूलतः 10 फ्लोर के लिए ही डिजाइन की गई थी उससे चार वर्ष में तीन संशोधन करके 41 मंजिली बना दिया गया। इतना ही नहीं दोनों टावरों के बीच में जो मैंडेटरी (आवश्यक) 16 मीटर की दूरी होनी चाहिए थी उसे भी घटाकर के 9 मीटर कर दिया गया और नए प्लान में दोनों टावरों  को एक स्काई गैलरी (आकाश मार्ग) से जोड़ दिया गया। ऐसा करके सुपरटेक ने एक नहीं अनेक नियमों का उल्लंघन किया: एक- उत्तर प्रदेश अग्नि रोधन एवं सुरक्षा नियम 2005, दो- नेशनल बिल्डिंग रेगुलेशन एक्ट 1997, तीन- उत्तर प्रदेश अपार्टमेंट्स एक्ट तथा अन्य इसी तरह के नियम। जब यह सब धीरे धीरे रेजिडेंट को पता चला तो सब ठगे हुए, असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहे। लेकिन चूंकि उनका सब कुछ दांव पर था, वे मजबूर होकर न्यायालय की शरण में गये क्यों शेष सब या अपराधी थे या अपराधियों के साथ थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में, लम्बी लड़ाई के बाद "सच" की जीत हुई यानि रेजिडेंट यह मुकदमा जीत गये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ट्विन टावर्स को गिराने का आदेश दिया। चूंकि मामला कई सौ करोड़ का था और ब्यूरोक्रेसी के मुंह पर तमाचा भी, लिहाजा दोनों ने मिलकर उच्चतम न्यायालय में उपरोक्त निर्णय को चुनौती दी। मंगलवार दिनांक 31 अगस्त 2021 को एक अत्यंत  महत्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने सुपरटेक बिल्डर्स के नोएडा सेक्टर 93ए में स्थित एमारल्ड कोर्ट नामक ट्विन टॉवर्स को धराशाई करने का आदेश दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को सही मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने लगभग सात वर्ष बाद उस पर मुहर लगाई और सुपरटेक बिल्डर्स के साथ-साथ पूरे सरकारी तंत्र पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों न्यायमूर्ति डी वाय चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम आर शाह ने टिप्पणी करते हुए कहा नोएडा अथॉरिटी के अधिकारी इस पूरे षड्यंत्र में "सहभागी (वर्किंग इन कहूट)" है। सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश सुपरटेक बिल्डर्स और नोएडा अथॉरिटी के इस सह-अपराध से इतना  क्षुब्ध थे कि उन्होंने ध्वस्त करने के आदेश के साथ निम्न कठोर दंडात्मक निर्देश दिए: एक एमारल्ड कोर्ट रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन को एक महीने के अंदर दो करोड़ रुपए वाद की भरपाई के लिए दिए जाएं। दूसरा-तीन महीने के अंदर इन दोनों टॉवर्स को धराशाई कर दिया जाए। तीसरा- इस बिल्डिंग को तोड़ने का सारा खर्च सुपर टेक बिल्डर उठायेंगे और आई आई टी रुड़की की देख-रेख में स्वयं ध्वस्त करेंगे। चौथा- इस टावर में जिन खरीदारों ने फ्लैट खरीदे थे उन सब की मौलिक राशि 12% प्रतिवर्ष की ब्याज की दर से सुपर टेक दो माह के अंदर वापस करेंगे। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने फ्लैट खरीददारों का ध्यान रखते हुए सुपरटेक बिल्डर को अभूतपूर्व सजा दी है। परिणाम स्वरूप 28 अगस्त को अपराह्न 2:30 पर दोनों टावर्स को ज़मींदोज़ कर दिया गया। इस घटना से बिल्डर और ब्यूरोक्रेट कुछ सीखेंगे या नहीं? अब क्या करें कि भविष्य में ऐसी घटनाएं ना हो? सुप्रसिद्ध कानून विद स्वर्गीय राम जेठमलानी ने कहा था कि  "नो वन कैन लेजिस्लेट मारलिटी"। यानी किसी व्यक्ति या संस्था को नैतिक बनाने का कोई कानून नहीं बना सकता। इसी प्रकार से एक पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा था कि "वी आर ओवर लेजिस्लेटेस्ट एंड अंडर द गवर्न्ड। यानी हमारे देश में कानून तो बहुत हैं लेकिन उनका अनुपालन नहीं है। सच्चाई यही है कि हमारे देश में उचित कानूनों की कमी नहीं है लेकिन उनके उचित क्रियान्वयन की बहुत कमी है। यदि इसी केस को ले तो उपयुक्त संख्या में कानून उपलब्ध है जिससे यह कार्य रोका जा सकता था लेकिन जो रेगुलेटरी अथारिटी है यानी नियामक प्राधिकरण और अधिकारी हैं वह स्वयं इस षड्यंत्र में शामिल होते हैं। इसका समाधान यह है कि यह अधिकारियों को भी दंडित किया जाये। ये भ्रष्टाचार करते हुए कानूनों की धज्जियां इसलिए उड़ाते हैं कि उन्हें यह विश्वास होता है कि उनकी सेवा शर्तों के कारण उनके ऊपर आसानी से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। केंद्र सरकार में भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को जो संरक्षण प्राप्त है उसे कम किया जाना चाहिए। इन अधिकारियों के ऊपर मुकदमा चलाने के कानून थोड़े कानूनों में ढील दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त एक नहीं जितने व्यक्ति इसमें शामिल हैं उन सब के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर सज़ा दिलाई जाये। ऐसी इस घटना को एक उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाना चाहिए ताकि भविष्य में इस तरह के षड्यंत्र में शामिल होने के पहले अधिकारी यह सोचे कि इसका क्या परिणाम हो सकता है। इसके अतिरिक्त जो आरडब्ल्यूए हैं यानी रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन को अधिक शक्तियां दी जानी चाहिए ताकि इस तरह के गलत कार्यों को होते देख वह उसका विरोध कर सके और उनके पास विरोध करने की आर्थिक और कानूनी शक्ति भी हो। आज की स्थिति यह है कि आरडब्लूए यानी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के पास कानूनी शक्तियां भी बहुत कम है और उनके पास अर्थ का कोई स्रोत नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि पूरा मुकदमा रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन ने लड़ा है और उन्होंने यह लड़ाई सुप्रीम कोर्ट के बड़े-बड़े वकीलों को जो मोटी मोटी फीस दी है। उन्होंने अपने लोगों के बीच चंदा करके यह कार्य किया है। जिसे यह लड़ाई लड़नी थी यानी नोएडा अथॉरिटी जो कि एक नियामक प्राधिकरण है, उसने यह कार्य नहीं किया और अपने दायित्व ही से अलग ही नहीं बल्कि षड्यंत्र का हिस्सा रहा। जबकि रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन ने इस कार्य को अंजाम दिया है। नागरिक संगठनों के हाथ में अधिक शक्तियां देने से भी इन भ्रष्टाचारों को कम किया जा सकता है। मेजर सरस त्रिपाठी

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भारत का संविधान- एक आलोचनात्मक समीक्षा 

भारत का संविधान संसार के सबसे विशाल और व्यापक संविधानों में से एक है। पिछले  72 वर्षों से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का शासन और प्रबंधन इसी संविधान के…

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आज़ादी का अमृत महोत्सव: राष्ट्रीय ध्वज के 75 वर्ष

किसी भी राष्ट्र का राष्ट्रीय ध्वज वस्त्र का एक टुकड़ा या रंगों का एक समायोजन नहीं होता। राष्ट्रीय ध्वज का एक-एक तंतु देश के बलिदानों से संरक्षित होता है। राष्ट्रध्वज…

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