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भारत का संविधान- एक आलोचनात्मक समीक्षा 

भारत का संविधान संसार के सबसे विशाल और व्यापक संविधानों में से एक है। पिछले  72 वर्षों से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का शासन और प्रबंधन इसी संविधान के अंतर्गत हो रहा है। संविधान किसी भी राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण सजीव प्रपत्र है। इसमें अपने राष्ट्र को ही नहीं वरन विश्व के अन्य देशों को भी प्रभावित करने की शक्ति होती है। क्योंकि एक देश का शासन जिस प्रकार चलाया जाता है उसका प्रभाव संसार के अन्य देशों पर पड़ता है।

किसी भी गणतांत्रिक लोकतंत्र में उसका संविधान जन भावनाओं का दर्पण और प्रतिनिधि होता है। संविधान कितना अच्छा या बुरा है, यह संविधान में लिखित विधि से ही नहीं बल्कि उस संविधान को किस प्रकार के लोग क्रियान्वित कर रहे हैं और किस तरह से क्रियान्वित कर रहे हैं- इस पर भी निर्भर करता है। संविधान की सफलता/असफलता बहुत अधिक उसको चलाने वालों पर निर्भर करती है। संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान लेखन संपन्न करने के बाद निम्नलिखित महत्वपूर्ण महावाक्य कहे थे:

“कोई भी संविधान उतना ही अच्छा या उतना ही बुरा होता है जितना उसे चलाने वाले लोग। यदि संविधान चलाने वाले लोग अच्छे हैं तो बुरा संविधान भी अच्छी तरह चलता है और यदि संविधान को चलाने वाले लोग बुरे हैं तो अच्छा से अच्छा संविधान ही बुरा हो सकता है।”

इस मापदंड पर भारत का संविधान अपने उद्देश्य में काफी खरा उतरा है हालांकि दुर्भाग्य से इसे चलाने वाले लोग हमेशा अच्छे नहीं थे। फिर भी 72 वर्षों की अवधि में जिस प्रकार की वृद्धि, समृद्धि, साक्षरता, सामाजिक न्याय, समरसता, शिक्षा इत्यादि में वृद्धि हुई है और जिस प्रकार देश का विकास हुआ है; हम कह सकते हैं कि भारत का संविधान काफी सफल रहा है। लेकिन संविधान की प्रशंसा एक पक्षीय है। अधिकांश जनमानस इसकी अशक्तताओं और विरोधाभासों से या तो अनभिज्ञ हैं या अनदेखी करते हैं। 

मैं यहां एक घटना का उदाहरण देना चाहूंगा। अपनी सद्य: प्रकाशित पुस्तक “साइलेंट कांस्टिट्यूशन डैंजरस कांसीक्वेंसेस” (अंग्रेजी) और “मौन संविधान: भयानक परिणाम” (हिंदी) पर परिचर्चा के लिए मैं कानून-विद्या का गढ़ समझे जाने वाले प्रयागराज में एक परिचर्चा में गया था। यहां अधिकतर कानून के ही विद्यार्थी थे। संविधान की अच्छाइयां और बुराइयां पूछने पर अच्छाइयां तो उन्होंने बहुत गिना दी, क्यों कि उन्हें रटी-रटाई पढ़ाई गई थी लेकिन संविधान की कमियों की ओर अधिकतर सर्वथा अनभिज्ञ थे। मेरे लिए अनुमान लगाना कठिन नहीं था कि ऐसा क्यों है? क्योंकि एक कादमिक शिक्षा में संविधान की अच्छाइयां ही बताई जाती हैं, संविधान की एक अलग दृष्टि से कभी समीक्षा नहीं की जाती। अनेकानेक कारणों से संविधान की मौलिक कमियों को इंगित करने का साहस बहुत कम लोग करते हैं। चूंकि कि मैंने इस विषय पर पुस्तक लिखी है, मैं संविधान की गम्भीर कमियों को यहां प्रस्तुत करूंगा:

1.”अधिकारों” का संविधान, कर्तव्यों का नहीं।

भारत का संविधान अधिकारों का संविधान है, कर्तव्यों का नहीं। वैसे तो संविधान में बहुत सी कमियां हैं जिसकी चर्चा मैं आगे करूंगा, लेकिन जो सबसे बड़ी कमी संविधान में है वह यह है कि इसमें नागरिक अधिकारों की बात बहुत दृढ़ता से की गई है किंतु नागरिक कर्तव्यों की बात कहीं नहीं की गई है। इस दृश्य से यह पूरी तरह से एक पक्षीय संविधान है। मानव संस्कृति में अधिकार और कर्तव्य एक साथ ही चलते हैं। मूल संविधान में मौलिक अधिकारों के नाम पर लगभग 7 आर्टिकल लिखे गए हैं लेकिन मौलिक कर्तव्यों पर एक भी आर्टिकल नहीं है। वस्तुतः भारत के नागरिकों के कर्तव्य का कहीं पर उल्लेख ही नहीं है। हम सभी जानते हैं कि जहां अधिकारों की बात होती है और कर्तव्यों की बात नहीं होती वहां पर संघर्ष प्रारंभ हो जाते हैं। ऐतिहासिक उदाहरणों में हम देखते हैं कि महाभारत अधिकारों की लड़ाई का ग्रंथ है और वहां संघर्ष ही संघर्ष है। जबकि रामायण एक कर्तव्यों का ग्रंथ है जहां अधिकार से अधिक कर्तव्यों की बात की गई है। अयोध्या में ही नहीं लंका में भी कर्तव्यों की ही बात की जाती है। क्योंकि संविधान में अधिकारों की बात की गई है, इसलिए हर नागरिक भी अपने अधिकार की बात करता है और छोटी-छोटी बातों में वह न्यायालय जाता है कि यह हमारा मौलिक अधिकार है और मौलिक अधिकार न्यायालय द्वारा अनुपालनीय (एनफोर्सिएबल) है। इसलिए न्यायालय भी अधिकारों के लिए नागरिकों के साथ खड़ा होता है। लेकिन किसी नागरिक को यह पता नहीं है कि देश के प्रति उसके कर्तव्य क्या है? इसका दुष्परिणाम यह है कि देशद्रोहियों की एक बड़ी जमात देश में पनप रही है और मौलिक अधिकारों की आड़ में वह देश के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते हैं। चूंकि मौलिक कर्तव्यों की कहीं बात नहीं की गई है और ना वह न्यायालय द्वारा अनुपालनीय है, इसलिए ऐसे लोग सिर्फ साधारण कानूनों के तहत, जो कि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में दिए गए हैं, आरोपित किए जाते हैं। इनमें से अनुमान है कि लगभग 90% लोग बिना दण्ड के छूट जाते हैं। 

2. विरोधाभासों का संविधान 

भारतीय संविधान एक विरोधाभासों का संविधान बनकर रह गया है। जहां एक तरफ संविधान की आत्मा धर्मनिरपेक्ष है और जिसका उल्लेख इसकी उद्देशिका (प्रस्तावना) में भी किया गया है, वहीं दूसरी तरफ संविधान धर्म के आधार पर विशेषाधिकार प्रदान करता है। इस तरह संविधान देश को दो हिस्सों में बांट देता है, जिसमें एक तरफ अल्पसंख्यक और दूसरी तरफ बहुसंख्यक है। क्योंकि अल्पसंख्यकों को संविधान ने विशेषाधिकार दिया है, इसलिए वे लोग जिन्होंने यह विशेषाधिकार अल्पसंख्यकों को दिया वह स्वयं इसके शिकार हो रहे हैं। संविधान का यह भेदभाव हमें आर्टिकल 25 से 30 तक दिखाई देता है। आर्टिकल 30 धार्मिक अल्पसंख्यकों को विशेषाधिकार प्रदान करता है जिसके अंतर्गत वे अपने शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थान बिना सरकारी हस्तक्षेप के चला सकते हैं। ऐसे संस्थानों में उस समुदाय विशेष के लोगों के लिए 50% सीटें सुरक्षित रहती हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह है कि धर्म विशेष द्वारा संचालित कई शैक्षणिक संस्थान धर्म परिवर्तन के अड्डे बन गए हैं। क्योंकि 50% सीटें इसी धर्म विशेष के लिए सुरक्षित हैं इसलिए इन संस्थानों प्रवेश के लिए उनकी मेरिट बहुत नीचे होती है। शेष 50% सभी धर्मावलंबियों के लिए होते हैं, इसके कारण उनकी मेरिट बहुत ऊपर होती है। उदाहरण के लिए दिल्ली के सुप्रसिद्ध सेंट स्टीफेंस कॉलेज में पिछले साल ईसाई प्रवेशार्थियों की मेरिट 72% और अन्य लोगों के प्रवेश की मेरिट 98% थी । ध्यातव्य है कि ईसाई इस देश में 3% से कम है यानी 3% लोगों के लिए 50% सीटें और 97% लोगों के लिए सिर्फ 50% सीटें। 

धार्मिक संस्थाओं की आय पर धर्म के आधार पर भेदभाव (धार्मिक अधिकार का विरोधाभास)

इतना ही नहीं इस विशेषाधिकार के अन्तर्गत अल्पसंख्यक संस्थानों और उनके धार्मिक स्थलों पर प्राप्त होने वाली धार्मिक आय पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इस धन का उपयोग वह अल्पसंख्यक समुदाय जिस भी प्रकार से चाहे कर सकता है। जबकि हिंदुओं के ऊपर इसके लिए कानून बनाए गए हैं और उनके अधिकांश बड़े मंदिरों और उनकी आय को, ट्रस्ट के माध्यम से, सरकारीकृत कर दिया गया है। परिणाम यह है कि हिंदू अपने उन्हीं मंदिरों का जीर्णोद्धार भी कराने के लिए सरकार पर निर्भर हैं। अगर उन्हें कोई नया मंदिर का निर्माण करना है या धार्मिक शिक्षा देनी है तो वह अपने ही मंदिरों का धन उपयोग नहीं कर सकते। उनके पास हिंदू समाज से पैसे का दान प्राप्त करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होता है। जबकि हिन्दुओं को छोड़कर शेष किसी धार्मिक समुदाय की ऐसी आय को सरकार छू भी नहीं सकती। प्रश्न यह है कि जब संविधान धर्मनिरपेक्ष है तो धर्म के आधार पर विशेषाधिकार क्यों दिए गए हैं?

इसी प्रकार मदरसे आतंकवादी प्रशिक्षण के अड्डे बन गये है। लेकिन उन्हें सरकारी अनुदान, अल्पसंख्यक के नाम पर, अनवरत मिल रहा है।

आर्टिकल 14 के साथ धोखाधड़ी (मौलिक अधिकारों का विरोधाभास)

आर्टिकल 14 सभी नागरिकों को शिक्षा, रोजगार जीविका इत्यादि में जाति, धर्म, लिंग, स्थान, इत्यादि के नाम पर कोई भेदभाव न करने का स्पष्ट आदेश देता है। लेकिन इस समय देश में 60% आरक्षण केंद्रीय सरकार में और 60% से बहुत अधिक (लगभग) सभी राज्यों में लागू है। छत्तीसगढ़ में आरक्षण 82% और महाराष्ट्र में 75% पहुंच चुका है (न्यायालय में विचाराधीन)। इसी प्रकार तमिलनाडु में 69% है। यह विरोधाभास सिर्फ एक दिन का नहीं है। पिछले 72 वर्षों से यही चला रहा है। प्रारंभ में संविधान के मौलिक आर्टिकल का उल्लंघन करके यह व्यवस्था सिर्फ 10 वर्ष के लिए दी गई थी जो अब एक स्थायी व्यवस्था की तरह चल रही है और जिसके समाप्त होने का कोई भविष्य नहीं दिखाई देता। इसी प्रकार विधायिका और कार्यपालिका का घालमेल है। ब्रिटेन के संसदीय प्रणाली से चुराए गए प्रारूप के कारण ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली में जितनी बुराइयां हैं वह सब भारतीय संविधान में आ गई हैं। लोकतंत्र में जहां विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों स्वतंत्र होने चाहिए; वहां भारत में कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे के ऊपर चढ़े हुए हैं। यहां पर जो लोग विधायिका में बैठकर कानून बनाते हैं वही मंत्री भी हैं। जबकि अमेरिका के संविधान में ऐसी व्यवस्था है कि जो कानून बनाने वाले लोग (यानि विधायिका) हैं वह कार्यपालिका में नहीं रहेंगे। परोक्ष रूप में देखें तो भारत में विधायिका कार्यपालिका के अधीन है। इसी प्रकार न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति किस प्रकार हो- इस विषय में बहुत विवाद है और संविधान अस्पष्ट है। संसार में भारत अकेला देश है जहां न्यायाधीश स्वयं की नियुक्ति करते हैं। न्यायपालिका किसके प्रति उत्तरदाई है यह स्पष्ट नहीं है, क्योंकि यह लिखा गया है न्यायपालिका पालिका “संविधान” के प्रति उत्तरदाई है। और संविधान कोई ऐसी चीज नहीं है जो उनकी कमियों को इंगित कर सके। फिर इसका निर्णय करने का अधिकार भी न्याय पालिका के पास ही है। इसलिए न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह लगाने का अधिकार लगभग समाप्त हो चुका है। यही कारण है कि बहुत से जज ऐसे निर्णय देते हैं जो “असंवैधानिक” होते हैं और जिनका स्वयं संविधान में कोई विधान नहीं है। बिहार के एक जज ने एक व्यक्ति को एक महीने तक गांव की सभी महिलाओं के अंतरंग वस्त्र धोकर प्रायश्चित करने का आदेश दिया था। इसी प्रकार एक जज ने एक लड़की को, जिसके ऊपर कुरान को अपमानित करने का आरोप लगाया था, पूरे गांव में कुरान बांटने का आदेश दिया गया था। इससे स्पष्ट है कि न्यायाधीश जो विधि में लिखा हुआ दंड है उसे न देकर के मनमाने दंड अपनी कल्पनानुसार देते रहते हैं । फिर यह संविधान के प्रति उत्तरदाई कैसे हैं? 

3.राजनैतिक पार्टियों में आन्तरिक लोकतंत्र के अभाव पर मौन।

इसी प्रकार भारत में बहुदलीय प्रणाली की व्यवस्था है। संसदीय प्रणाली में चुनाव के बाद, जो राजनैतिक पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी होगी या, राज्यों के परिप्रेक्ष्य में जो विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी होगी, सत्ता उसी के पास जाएगी। भारत का संविधान एक लोकतांत्रिक संविधान है लेकिन विडंबना यह है कि “राजनीतिक पार्टियों में लोकतंत्र” की कोई व्यवस्था संविधान में नहीं है। परिणाम यह है कि अधिकतर राजनीतिक पार्टियां एक “पारिवारिक व्यवसाय” बन कर रह गयी हैं। सच्चाई यह है कि भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर सारी राजनीतिक पार्टियां एक परिवार या एक वंशानुगत पार्टी बनकर रह गई है। कुछ कठोर तथ्य यहां पर मैं प्रस्तुत करना चाहूंगा जो आप को आश्चर्यचकित कर देंगे-

स्वर्गीय एम करुणानिधि अपनी पार्टी (डीएमके) के 49 वर्ष तक अध्यक्ष बने रहे। एक बार अध्यक्ष बनने के बाद अपने मृत्यु तक वही अध्यक्ष रहे और मृत्यु के बाद अध्यक्ष का पद उनके परिवार (पुत्र/पुत्री, भाई-भतीजे, बहन-भांजे) के पास चला गया। यह धुर दक्षिण की घटना है। अगर हम धुर उत्तर की ओर जाएं तो कश्मीर में भी वही स्थिति है। नेशनल कांफ्रेंस की स्थापना शेख अब्दुल्ला ने की और वह उसके अध्यक्ष तब तक रहे जब तक उनकी मृत्यु नहीं हो गई। वह 45 वर्ष तक नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष रहे और उनके मृत्यु के बाद उनके बेटे फारुख अब्दुल्ला 42 वर्ष तक उस पार्टी के अध्यक्ष रहे और उसके बाद उनका बेटा ओमर अब्दुल्ला अब पार्टी का अध्यक्ष है । यह तो क्षेत्रीय पार्टियां हैं। देश की सबसे प्राचीन राजनैतिक पार्टी “कांग्रेस पार्टी” वंशवाद के चंगुल में पूरी तरह उलझ गई है और संविधान मौन है। श्रीमती सोनिया गांधी 19 वर्षों से कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। सैकड़ों प्रयास और कई नेताओं की अप्रसन्नता के बाद भी कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के चंगुल से बाहर नहीं निकल पा रही है। यह हमारे संविधान की बहुत बड़ी कमजोरियों में से एक है। किसी भी संसदीय प्रणाली में राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र की रीढ़ रज्जु होती है। अगर उनमें आंतरिक लोकतंत्र नहीं है तो वह सत्ता में आने के बाद लोकतांत्रिक तरीके से देश को चलाएंगी- इसकी कोई गारंटी नहीं है। जिसके घर में लोकतंत्र नहीं है वह बाहर लोकतंत्र क्या देगा?

4.संविधान में कानून अमर हैं।

संविधान में कानूनों का कोई जीवन नहीं है जो कानून एक बार बन जाता है वह अनंत काल तक जीवित रहता है। इसका दुष्परिणाम यह है कि बहुत से ऐसे कानून जो डेढ़ सौ साल से भी अधिक पुराने है और जिस को अंग्रेजों ने बनाया था, आज तक जीवित है। इन सड़े-गले कानूनों का उपयोग करके पुलिस नागरिकों को सताती है। संविधान में इस बात की व्यवस्था होनी चाहिए थी कि स्वतंत्रता के पहले बनाया गया गया कोई भी कानून देश पर लागू नहीं होगा। अगर ऐसे कानून को यथावत लागू करना भी था तो उसे संसद द्वारा पुनर्पारित होना चाहिए था। इतना ही नहीं स्वतंत्रता के बाद भारत की संसद ने जो कानून बनाये, उनका भी कोई जीवन तय नहीं है। इसका परिणाम यह है कि भले ही कानून अब उपयोगी ना हो वह जीवित है। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई ने पहली बार एक आयोग का गठन किया, जिसको यह कार्य दिया गया था कि वह ऐसे कानूनों का अध्ययन करें जो काल वाह्य हो चुके हैं और जिन्हें समाप्त किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया को वर्तमान प्रधानमंत्री, श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी आगे बढ़ाया। परिणाम स्वरूप लगभग ढाई हजार कानून विधान से बाहर किए गए। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कितने सड़े-गले कानूनों का बोझ अपने सिर पर लेकर घूम रहे थे। लेकिन फिर भी आज तक ये प्रावधान नहीं बना कि कानूनों का स्वयं का जीवन हो और उसके बाद यदि कानून की आवश्यकता हो तो संसद उनकी समीक्षा करके फिर से पारित करें और आवश्यकता ना हो तो स्वत: समाप्त हो जाए।

5. एक देश एक चुनाव का अभाव 

संविधान की पांचवीं सबसे बड़ी कमजोरी है कि इसमें “एक देश एक चुनाव” का प्रावधान नहीं है। परिणाम स्वरूप पूरे वर्ष और कई बार वर्ष में दो-तीन बार चुनाव होते रहते हैं। इसका देश की अर्थव्यवस्था पर बहुत अधिक दुष्प्रभाव पड़ता है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 60,000 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। अमेरिकी डॉलर में यह 8 बिलियन डॉलर के लगभग आता है। जबकि विधानसभा के चुनाव अलग-अलग स्थान और अलग अलग समय पर होते हैं, जो निश्चित रूप से इस राशि से अधिक व्यय का कारण बनते हैं। यदि लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ हो तो लगभग 60,000 करोड रुपए यानी 8 बिलियन डालर हम बचा सकते हैं। यह राशि कितनी बड़ी है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान का इतना कुल “सकल घरेलू उत्पाद” नहीं है और दुनिया में 50 ऐसे देश हैं जिनकी कुल आय इस राशि से कम है। 

6. धर्म निरपेक्षता के बावजूद धर्म आधारित कानूनों की स्वीकार्यता।

संविधान की छठवीं बड़ी कमजोरी यह है कि धर्मनिरपेक्ष होने के बावजूद अलग-अलग धर्म के लोगों के लिए अलग-अलग कानून है। जबकि यदि संविधान ने एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की कल्पना की थी तो सभी नागरिकों के लिए समान कानून होने चाहिए थे। यानि यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता का प्रावधान होना चाहिए। आज इस देश में हिंदुओं के लिए अलग कानून है और मुसलमानों के लिए अलग कानून है। यह समाज ही नहीं पूरे देश के लिए अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। हमारे संविधान के विरोधाभासों के कारण देश में अशांति है। 

इसी प्रकार संविधान में अनेक गंम्भीर कमियां हैं या पैदा कर दी गयी हैं। हांलांकि इसके लिए सिर्फ संविधान को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जो सरकारें थीं या हैं, उनका भी कर्तव्य है कि जहां संविधान में कमियां हैं उन्हें दूर करने के लिए यथाशीघ्र कदम उठाएं और संवैधानिक संशोधन कर संविधान की कमियों को दूर करें ताकि भारत एक आदर्श लोकतांत्रिक गणतंत्र देश बन सके।

Saras Tripathi

Saras Tripathi is a multifaceted personality having expertise in multiple domains of human endeavors. Excellence has been the hallmark of his accomplishments. He served in the Indian Army for eight years as Commissioned Officer (last rank as Major), A Deputy Secretary (Media) to the Government of India, Human Resource Manager in Central PSU and Manager (Security and Vigilance)/ Airport Manager at IGI airport New Delhi. He last served as Commandant of Raxa Academy of GMR Group (a certified “centre of excellence”) until he decided to quit the position (and all jobs forever) and dedicate himself to motivate youth/professionals and fellow brethren to achieve what they dream of. He left the highly paid job and prestigious position to pursue his passion for freelance-writing and publishing books of national importance. As a motivational speaker he has been training people to achieve their cherished goal in life. Education: He graduated from the University of Allahabad in English Literature, Philosophy and Ancient history/Culture followed by MA (Philosophy) in the year 1989. He has Bachelor and Masters’ degrees in Journalism (B. Journ. and M. Journ) from Sagar University, and PG Diploma in HRD from Pondicherry University. He has been a graded artist at All India Radio. Trainer and Speaker: He has delivered hundreds of lectures/PPT on a variety of subjects relating to self-growth, personality development and topics of national importance. Author: He has authored two books; one each in English (“Holy Sinners: Search of Kashmir”) and Hindi (“Kashmir Mein Atankwaad: AnkhonDekhaSach”) and several articles published in various newspapers/journals. Occasionally, he has been at AIR for discussions and talks.He regularly writes on contemporary subjects for various newspapers/magazines and Social Media platforms. Pragya Matth Publications is a publication house established by authors to protect the author community from unscrupulous, unethical and exploitative commercial publishers. Pragya Matth has been established by an ex-army officer, Major Saras Tripathi After his own bitter experience as an author, with publishers and their unethical business dealings. The publication is managed by a group of authors, academicians and professionals.