हां चौंक गए ना आप। क्योंकि आपने अभी तक पुत्र-कामेष्ठि सुना था। हमारे धर्म ग्रंथों/पुराणों में वर्णित वह यज्ञ जिसे “पुत्र” प्राप्ति के लिए किया जाता है। परंतु यह है पुत्रि-कामेष्टि। यानी पुत्री प्राप्ति के लिए जो यज्ञ किया जाए।
जी हां मैं किसी यज्ञ के विषय में नहीं बल्कि इसी नाम से सद्य प्रकाशित डॉ सच्चिदानंद जोशी के कथा-संग्रह की बात कर रहा हूं। कविता कथा, और जीवनी हिंदी साहित्य की वह तीन प्रमुख विधाएं हैं जिसमें मुझे सर्वाधिक अभिरुचि रही है। कितने महापुरुषों की जीवनी पढ़ी, मुझे याद भी नहीं। पुत्रिकामेष्टि के पहले जो कथा संग्रह मैंने पढ़ा था वह लगभग एक वर्ष पूर्व चित्रा मुद्गल की “लपटें” थी। एक साल तक कोई कथा संग्रह पढ़ने का अवसर नहीं मिला या कुछ इस तरह उलझा रहा कि नहीं पढ़ सका। बस एक सप्ताह पहले ही “पुत्रिकामेष्टि” पढ़ने का अवसर मिला।
लेकिन इसने एक वर्ष तक कोई कथा संग्रह न पढ़ने की सारी कमियों को पूरा कर दिया। यह है तो 13 कहानियों का संग्रह लेकिन लगता है जैसे इसमें सैकड़ों कहानियां हों। इन कहानियों में जो विषय उठाए गए हैं लगता है वह कहानी में नहीं बल्कि हमारे जीवन के परिवेश में घटित हो रही घटनाएं हो। कहानियां पूरी तरह से आधुनिक शहरी परिवेश से जुड़ी हुई और समसामयिक है। ऐसे विषय उठाए गए हैं जिसे आमतौर पर हिंदी साहित्य के लोग उठाने का साहस नहीं करते। जैसे पुत्रिकामेष्टि को ही लीजिए। यह एक ऐसे लड़के की कहानी है जो लिंग-परिवर्तन करके एक लड़की बन जाता है। लेकिन संपूर्ण कहानी को इस तरह से पिरोया गया है कि ना तो कहीं पर विद्रूपता दिखाई देती है और ना ही अनावश्यक वैचारिक, सामाजिक या पारिवारिक संघर्ष। किसी विचारधारा या वाद का न समर्थन है ना विरोध। सब कुछ इतनी सहजता से होता है जैसे हमें यह सीख दे रहा हो कि अगर ऐसी समस्या आपके समक्ष आए तो आपको क्या करना चाहिए।

कहानी में उठाए गए सारे विषयों की कुछ एक रूप खास बातें है; जैसे सभी कहानियां हमारे परिवेश से जुड़ी हुई हैं। ऐसे लगता है जो हमारे यहां आसपास घटित हो रहा है वही सब बताया जा रहा है। भाषा की सरलता इतनी है कि लगता है कि जिस शब्द का प्रयोग जहां किया गया है उससे उपयुक्त कोई दूसरा शब्द नहीं और कहीं-कहीं तो पूरा वाक्य। लेकिन भाषा, शब्द-विन्यास या अभिव्यक्ति में किसी भी तरह का भारीपन नहीं आता।

कर्ण से लेकर “निर्माल्य स्वरपुत्र” तक जो प्रश्न समाज के समक्ष उठाए गए हैं उसका उत्तर भी कहीं ना कहीं “निर्माल्य” नामक कहानी में देखने को मिलता है। विवाह-पूर्व या विवाहेतर संबंधों से उत्पन्न संतानें समाज में किन कठिनाइयों का सामना करती है उनका बहुत ही मार्मिक विवरण इस कहानी में है। इसके अतिरिक्त कई प्रश्न और कई उत्तर भी हैं। सबसे अच्छी बात यह है कि बिना कोई दोषारोपण किए “निर्माल्य स्वरपुत्र” स्वयं इन प्रश्नों का उत्तर खोजता है। वह कर्ण की तरह न तो अपनी मां को दोषी ठहराने का प्रयास करता है और न किसी दुर्योधन जैसे मित्र से अपनी पहचान प्राप्त करने के लिए कोई सहयोग की अपेक्षा करता है।
सफल संतानों के मात-पिता की जिंदगी जिस तरह से नौकर चाकरों के भरोसे है उसका बहुत ही मार्मिक प्रकटन “राम भरोसे” नामक कहानी में होता है। बड़े ही सहज तरीके से यह भी बता दिया गया है कि जिसे हम अपने नौकर-चाकर समझते हैं असल में वे हमारी नींव की ईंटें हैं। वह एक प्लेटफार्म है जिसके ऊपर हम खड़े हैं। उस प्लेटफार्म के खिसक जाने के बाद हमें एहसास होता है कि वह हमारे नौकर नहीं थे बल्कि अपने कंधों पर ले चलने वाले हमारे सगे संबंधी से बड़े थे। बिना कोई भी नैतिक-प्रवचन दिए संदेश बहुत आसानी से संप्रेषित किया जाता है कि हमें उनका सम्मान क्यों करना चाहिए और उनके द्वारा दिए गए सपोर्ट सिस्टम को हमें क्यों महत्व देना चाहिए।
कौन व्यक्ति आपके लिए प्रेरणा का स्रोत बन सकता है, यह विषय “डिक्टेशन” नामक कहानी बहुत ही अच्छे तरीके से उठाती है। आपका जीवन किसी एक व्यक्ति के किस एक वाक्य या उसके किसी एक व्यवहार से परिवर्तित हो जाएगा- इस कहानी में बहुत ही अच्छी तरीके से उकेरा गया है। जीवन में प्रेरणा पाने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि बड़े-बड़े मोटिवेशनल स्पीकर्स के पास या बड़े-बड़े विद्वानों की संगत में रहकर ही प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है। कभी-कभी प्रेरणा सिर्फ एक वाक्य, एक कृत्य या एक संकेत में होती है, जो किसी के जीवन को बदल देती है।

आलू और पोटैटो, प्याज और ओनियन, टमाटर और टोमेटो, सब्जी और वेजिटेबल का अंतर सिर्फ भाषा के शब्दों का नहीं है; यह पूरी संस्कृति का है। इस बात को “वेजीटेबल” नामक लघुकथा में बहुत ही सुंदर तरीके से उकेरा गया है। उच्च मध्यवर्गीय समाज में व्याप्त पाखंड और अज्ञान भी यहां उभर कर आता है। प्रचार तंत्र में उनके मन मस्तिष्क को बदलने की जो शक्ति है वह भी अनजाने ही इस कहानी में उभर कर आ जाती है।
उम्र, अनुभव और परिस्थितियों के बदलाव के साथ व्यक्ति के विचारों में कितना गहन परिवर्तन होता है यह “क्षमा छोटन को चाहिए” नामक कहानी में बहुत अच्छी तरीके से चित्रित किया गया है। समाजवाद के पाखंड की लंबी चौड़ी गाथा गाये बगैर किस तरह से सामाजिक समरसता लाई जा सकती है-यह भी इस कहानी में अनजाने ही बहुत अच्छी तरीके से उभर कर आता है। जातीय बंधन मूलतः मानसिक हैं। इन बेड़ियों को तोड़ने के बाद व्यक्ति और समाज सही अर्थों में मुक्त और स्वतंत्र हो सकता है।
कुल मिलाकर यह कहानी संग्रह 13 कहानियों में अनेक कहानी कहता है। लेखक की किस्सागोई बेजोड़, भाषा सहज और विषय समसामयिक है।